Monday, June 8, 2015

एक ग़ज़ल: कमलेश भट्ट 'कमल'

चेहरे पर ख़ामोशी लेकिन मन में हलचल है 
तुम क्या जानोगे मुझमें कितना कोलाहल है ।

जंगल से बाहर आए तो अरसा बीत गया 
इंसानों में फिर भी बाक़ी कितना जंगल है ।

जाने कैसे उग आते हैं काँटे उस दिल में 
जो दिल अपनी संरचना में बेहद कोमल है ।

टुकड़े-टुकड़े में देखा है तुमने जीवन को 
वर्ना जान ही जाते कौन सफल या असफल है ।

गुपचुप राह बना लेती है चिंता भीतर तक
कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है कैसी साँकल है ।

जाने कितनी तन की बस्ती झुलसा डालेगा
लोगों के मन के जंगल का जो दावानल है ।

हममें भी उतना ही जीवन शेष बचा समझो 
गंगा में जितना भी बाक़ी अब गंगाजल है ।

                                                                 - कमलेश भट्ट 'कमल'

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