Monday, June 29, 2015

सुरेश नीरव जी की एक हास्य ग़ज़ल

सभ्यता के नाम पर जब गालियां बिकने लगीं
योग्यता के नाम पर भी डिग्रियां बिकने लगीं।

भीख में मिलती नहीं है दाद आख़िर क्या करें
अब बड़े मंचों पे यारो तालियां बिकने लगीं।

छंद,ग़ज़लें,गीत,दोहे मांगकर लाए हैं लोग
शाइरी अब क्या करें कव्वालियां बिकने लगीं।

कुछ वकील औ डॉक्टर,इंजीनियर काग़ज़ पे हैं
पान की दूकान पर अब डिग्रियां बिकने लगीं।

चाट खाने के लिए कुछ गोलगप्पों के एवज
घर के साले तो बिके थे,सालियां बिकने लगीं।

मुद्दई फर्ज़ी बना है और जाली है वकील
भेड़ के बदले में अब तो बकरियां बिकने लगीं।

बिक रहा है अब दुकानों पर पुराना ‘रोल्डगोल्ड’
जिनकी कुछ कीमत न थी वो बालियां बिकने लगीं।

जो पुराने लोग थे ‘नीरव’ वो अब सड़कों पे हैं
पहले लोटे बिक गए अब थालियां बिकने लगीं।

-पंडित सुरेश नीरव

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