मज़ारिअ मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ मक़्सूर महज़ूफ़ छंद के कुछ ओर उदाहरण, भाग-3
221 2121 1221 212, ગાગાલ ગાલગાલ લગાગાલ ગાલગા
(22)
(21)
یہ اور بات تیری گلی میں نہ آئیں ہم
لیکن یہ کیا کہ شہر ترا چھوڑ جائیں ہم
ये और बात तेरी गली में न आएँ हम
लेकिन ये क्या कि शहर तिरा छोड़ जाएँ हम
हबीब जालिब
(22)
ٹوٹا تو ہوں مگر ابھی بکھرا نہیں فرازؔ
میرے بدن پہ جیسے شکستوں کا جال ہو
टूटा तो हूँ मगर अभी बिखरा नहीं 'फ़राज़'
मेरे बदन पे जैसे शिकस्तों का जाल हो
(23)
બીજું કશુંય કરવા સમું પ્રાપ્ત થાય તો
સાચું કહું છું હુંય પછી પ્રીત નહીં કરું
- રઈશ મણીઆર
(24)
रावण मेरे वजूद में ज़िंदा है आज भी
सौ बार मन का राम जगाने के बावजूद
راون میرے وجود میں زندہ ہے آج بھی
سو بار من کا رام جگانے کے باوجود
- के.पी. अनमोल
(25)
ایسا نہیں کہ ان سے محبت نہیں رہی
جذبات میں وہ پہلی سی شدت نہیں رہی
ऐसा नहीं कि उन से मोहब्बत नहीं रही
जज़्बात में वो पहली सी शिद्दत नहीं रही
(26)
گرتے ہیں شہسوار ہی میدان جنگ میں
وہ طفل کیا گرےگا جو گھوٹنوں کے بل چلے
गिरते हैं शहसवार ही मैदान-ए-जंग में,
वो तिफ़्ल क्या गिरेगा जो घुटनों के बल चले
- मिर्ज़ा अज़ीम बैग 'अज़ीम'
(27)
اس نے ہمارے زخم کا کچھ یوں کیا علاج
مرہم بھی گر لگایا تو کانٹوں کی نوک سے
उसने हमारे ज़ख़्म का कुछ यूँ किया इलाज
मरहम भी गर लगाया तो काँटों की नोक से
(शायर नामालूम)
(28)
अब जिस के जी में आये वह ही पाये रौशनी
हम ने तो दिल जला के सरे आम रख दिया
~ क़तील शिफ़ाई
(29)
वो पेड़ जिनकी छाँव में ठहरा दिया हमें,
शाखों पे उनकी एक भी पत्ता हरा नहीं ।
- अनवारे इस्लाम
(30)
دونوں جہان تیری محبت میں ہار کے
وہ جا رہا ہے کوئی شب غم گزار کے
(28)
अब जिस के जी में आये वह ही पाये रौशनी
हम ने तो दिल जला के सरे आम रख दिया
~ क़तील शिफ़ाई
(29)
वो पेड़ जिनकी छाँव में ठहरा दिया हमें,
शाखों पे उनकी एक भी पत्ता हरा नहीं ।
- अनवारे इस्लाम
(30)
دونوں جہان تیری محبت میں ہار کے
وہ جا رہا ہے کوئی شب غم گزار کے
दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के
वो जा रहा है कोई शब-ए-ग़म गुज़ार के
- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
वो जा रहा है कोई शब-ए-ग़म गुज़ार के
- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
No comments:
Post a Comment