Sunday, October 18, 2015

देवनागरी लिपि से गायब हुए दो वर्ण : अजित वडनेरकर

एक बार फिर अजित वडनेरकर साहब की फ़ेसबुक वाल से देवनागरी लिपि के दो लुप्त हुए वर्णों के बारे में मिली दिलचस्प जानकारी साझा कर रहा हूँ: (इसमें उनकी मूल पोस्ट के अलावा अन्य मित्रों द्वारा की गई टिप्पणियाँ भी शामिल हैं)

देवनागरी में अब 'झ' और 'अ' हैं। पुराने रूप बताने के लिए कलम का सहारा लेना पड़ा। (अजित वडनेरकर)

टिप्पणियाँ और उनके जवाब:
Rahul Singh: ब्राह़्मी लिपि में हुए कालगत परिवर्तन के चरणों में ऐसा हुआ है. जहां तक मेरी अब तक की समझ है, यह मराठी प्रभाव कतई नहीं.

Raag Bhopali (Ajit Wadnerkar): दरअसल हिन्दी के विद्वानों ने शोध के आधार पर ही ऐसा माना है। भाषा विज्ञानी इस पर स्थिर हैं कि हिन्दी समेत उत्तर की बोली-भाषा में ळ ध्वनि मराठी प्रभाव है। मराठी में यह ध्वनि द्रविड़ के सम्पर्क से आई होगी ऐसा माना जाता है। हालाँकि वैदिक भाषा के 'अग्निमीळे' में इसकी उपस्थिति है। ऐसे अनेक परिवर्तन हैं। अनेक लोग हिन्दी में शिरोरेखा नहीं लगाते, विद्वान इसे गुजराती लिपि का प्रभाव मानते हैं।

Rahul Singh: लेकिन अ और झ पर शायद मराठी प्रभाव जैसी कोई बात नहीं है. वैसे भी यह भाषा से अधिक लिपि का मामला है.

Raag Bhopali: 'अ' और 'झ' समेत 'ळ' के बारे में भोलानाथ तिवारी, उदयनारायण तिवारी व तमाम अन्य भाषाशास्त्री इस पर एकमत हैं। आप असहमत हैं तो निश्चित ही कुछ आधार होगा। कृपया साझा करें। बिना भाषा के लिपि का क्या महत्व ! पोस्ट में लिपि और देवनागरी ही लिखा है। मराठी चाहे देवनागरी में लिखी जाती हो, पर ळ, झ और अ की वजह से इसका उल्लेख 'मराठी लिपि' ही किया जाता है। कालक्रम के अध्ययन से यह पता चलता है कि किन लिपि साक्ष्यों में इन चिह्नों का प्रयोग हुआ है और किन में नहीं।

Rahul Singh: अशोककालीन ब्राह्मी अ से आज की नागरी अ बनने को समझना इस चित्र से आसान होगा, दुहराते हुए कि इसमें मराठी कहां कोई कारक नहीं है. ऐसा शिरोरेखा और रनिंग राइटिंग, यानि लिखने के उपकरण और जिस सतह पर लिखा जाता है के बदलने से, लिखने की गति में आए अंतर के कारण हुआ है.
Illustration shown by Rahul Singh



Raag Bhopali: आप विकास की प्रक्रिया बता रहे हैं, जो सर्वमान्य है। ब्राह्मी का प्रभाव पूर्वी एशिया से लेकर पश्चिम एशिया तक नज़र आता है। देवनागरी का विकास ब्राह्मी से ही हुआ है। तमाम विद्वानों ने इसी क्रम में पुराने 'अ' का विकास आज के 'अ' में होना बताया है। सबसे पहले इसे कहाँ अपनाया गया या सबसे पहले यह विकसित रूप कहाँ नज़र आया यह महत्वपूर्ण है। इस पर खोज-बीन करने के बाद ही भाषा विज्ञानियों ने इन वर्ण संकेतों को मराठी के खाते में डाला होगा, बात इतनी सी है। चूँकि मैने इस विषय में कोई शोध नहीं किया सो जो अब तक जाना है, उसी के आधार पर कहूँगा।

Rahul Singh: शायद मत भिन्‍नता का कारण यह है कि आपका आधार भाषा विज्ञान है और मेरी बात लिपि विज्ञान पर आधारित.

Raag Bhopali: मैं तो इसमें कुछ कह ही नहीं रहा। भोलानाथ तिवारी और अन्य विद्वानों के हवाले से कह रहा हूँ। उनकी मान्यता या शोध पर सवाल आपका है।

Rahul Singh: मैं उनकी बात समझने का प्रयास करूंगा, उन्‍होंने यह किस आधार पर कहा है, क्‍योंकि ल-ळ तो उच्‍चारण का मामला है, लेकिन अ और झ में उच्‍चारण में नहीं मात्र रूप में परिवर्तन हुआ है, इसलिए इसका निर्धारण लिपि विज्ञान के आधार पर किया जाना उपयुक्‍त होगा न कि भाषा शास्‍त्र के आधार पर. वैसे मेरा सवाल विद्वता पर नहीं, इस स्‍थापना पर है, क्‍योंकि इस मान्‍यता का आधार फिलहाल स्‍पष्‍ट नहीं है.

Bibhas Kumar Shrivastav: दूसरी भाषा के उपर थोपना ठीक नहीं है। देवनागरी लिपि के मानकीकरण के लिए एक समिति ने इन रूपों को हटाया क्योंकि पुराना झ भ से मिलता जुलता था तथा पुराना अ लिखना कठिन था। इसके अतिरिक्त अंकों, जिनका हम इस्तेमाल करते हैं, उसे भारतीय अंकों का अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप कहते हैं और अंकों में कोई भ्रम न हो पूरी दुनिया में यही इस्तेमाल होता है। और भी सही शब्द है 'गयी' लेकिन मानकीकरण में इसे 'गई' बनाया गया जैसे गये को गए बनाया गया।सभी तरह के अनुस्वार को हटा कर सिर्फ़ ं रखा गया। ण को भी बदला गया। यह हिंदी के भले के लिए हुआ। तमिऴ की लिपि तो पूरी तरह से सही है लेकिन कन्नड़ लिपि के मानकीकरण की तत्काल ज़रूरत है इसके प्रसार के लिए।

Jan Vijay: यानी गण, गन हो जाएगा, गणपति, गनपति, प्रण, प्रन, गुण, गुन। उपन्यास को अगर मैं उपंयास लिखूँ तो ठीक है। न्यास में आधा ’न’ कैसे लिखा जाएगा। यह मानकीकरण नहीं भाषा की बर्बादी है। गयी को गई नहीं किया गया। बल्कि ’गयी’ ग़लत ही है। सही गई और गए ही है।

Raag Bhopali: मित्रों इसमें थोपने जैसा क्या है ? लिपि और भाषा में होने वाले बदलावों के मामले में सत्तर अस्सी बरस की अवधि कुछ भी नहीं होती। भोलानाथ तिवारी और उदय नारायण तिवारी का रिश्ता भी उत्तर प्रदेश से था। वे क्यों मराठी को श्रेय देने लगे ? स्वाभाविक तौर पर 'फ' जैसी आकृति वाले 'झ' का चलन जिस दौर में देवनागरी में था तब मराठी में प्रयुक्त देवनागरी इसके लिए 'झ' का प्रयोग करती थी। इसी तरह 'प्र' से मिलती जुलती आकृति वाले 'अ' की बजाय मराठी की लिपि में वर्तमान 'अ' वर्णचिह्न प्रयुक्त था। प्राचीन पाण्डुलिपियों, शिलालेखों आदि में प्रयुक्त लिपि, वर्णचिह्नों के अध्ययन के बाद भाषाविज्ञानी / पुरातत्विद् / लिपि विशेषज्ञों ने यह नतीजा निकाला होगा। यह कोई सौ पचास बरसों की बात नहीं है। मैं बार बार कह चुका हूँ कि डॉ. भोलानाथ तिवारी और उदयनारायण तिवारी समेत अनेक विद्वानों ने इसी तथ्य का उल्लेख किया है। मुझे इस पर शक करने का कोई आधार नज़र नहीं आता। अगर किन्ही साथियों को है तो वे अपना तर्क दें। यहाँ न मराठी को हिन्दी पर तरजीह दी जा रही है और न हिन्दी को नीचा दिखाया जा रहा है। बात सिर्फ़ सांस्कृतिक लेन देन की है।

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