Thursday, June 9, 2022

मन फूला फूला फिरे जगत में कैसा नाता रे

 कबीर भजन : मन वृथा ही जगत को अपना स्थायी घर समझने लगता है। मन गर्वित होता है जो महज़ मिथ्या है। माता, पिता, बहन, भाई, स्त्री का नाता बस दिखावटी है। एक रोज चार जने मिलकर काठ की घोड़ी को जला देंगे, जैसे होली का दहन कर दिया जाता है। कोई हिमायती काम नहीं आने वाला उस रोज। दो चार दिन का शोक मनाकर सभी इसी जगत में फिर भ्रमित हो जाएंगे, जबकि उनके सामने तेरा प्रत्यक्ष उदाहरण होगा। मन को सम्बोधित करते हुए कबीर साहेब की वाणी है की इस जगत से तेरा कैसा नाता है। यह भुलावा है, छल है। भाव है की यह जगत एक सराय की भाँती है, कुछ समय का ठिकाना है। हरी के नाम का सुमिरण ही जीवन का सदुपयोग है -सत श्री कबीर साहेब।




मन फूला फूला फिरे,
जगत में कैसा नाता रे ॥
मन फूला फूला फिरे,
जगत में कैसा नाता रै।

माता कहे यह पुत्र हमारा,
बहन कहे बीर (भाई ) मेरा,
भाई कहे यह भुजा हमारी,
नारी कहे नर मेरा,
मन फूला फूला फिरे,
जगत में कैसा नाता रै।

पेट पकड़ के माता रोवे,
बांह पकड़ के भाई,
लपट झपट के तिरिया रोवे,
हंस अकेला जाए,
जगत में कैसा नाता रै,
मन फूला फूला फिरे,
जगत में कैसा नाता रै।

जब तक जीवे माता रोवे,
बहन रोवे दस मासा,
तेरह दिन तक तिरिया रोवे,
फेर करे घर वासा,
जगत में कैसा नाता रै,
मन फूला फूला फिरे,
जगत में कैसा नाता रै।

चारगजी चरगजी बनाई,
चढ़्यो काठ की घोड़ी,
चारो कानी आग लगाई,
फूँक दियो ज्यों होरी,
जगत में कैसा नाता रै,
मन फूला फूला फिरे,
जगत में कैसा नाता रै।

हाड जले जस लकड़ी रे,
केश जले जस घास,
सोना जैसी काया जल गई,
कोइ न आयो पास,
जगत में कैसा नाता रे,
मन फूला फूला फिरे,
जगत में कैसा नाता रै।

घर की तिरिया ढूंढन लागी,
ढुंडी फिरि चहु देशा,
कहत कबीर सुनो भई साधो,
छोड़ो जगत की आशा,
जगत में कैसा नाता रे ॥

मन फूला फूला फिरे,
जगत में कैसा नाता रे,
मन फूला फूला फिरे,
जगत में कैसा नाता रै।

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