चेहरे पर ख़ामोशी लेकिन मन में हलचल है
तुम क्या जानोगे मुझमें कितना कोलाहल है ।
जंगल से बाहर आए तो अरसा बीत गया
इंसानों में फिर भी बाक़ी कितना जंगल है ।
जाने कैसे उग आते हैं काँटे उस दिल में
जो दिल अपनी संरचना में बेहद कोमल है ।
टुकड़े-टुकड़े में देखा है तुमने जीवन को
वर्ना जान ही जाते कौन सफल या असफल है ।
गुपचुप राह बना लेती है चिंता भीतर तक
कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है कैसी साँकल है ।
जाने कितनी तन की बस्ती झुलसा डालेगा
लोगों के मन के जंगल का जो दावानल है ।
हममें भी उतना ही जीवन शेष बचा समझो
गंगा में जितना भी बाक़ी अब गंगाजल है ।
- कमलेश भट्ट 'कमल'
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