Thursday, August 22, 2024

नि:स्वार्थ प्रेम की परिभाषा (जोगिन्दर तिवारी)


Speaker 1 : जोगी जी! 

Speaker 2: हाँ भाई। 

Speaker 1: लोग बहुत बोलते हैं कि मां बाप भगवान का रूप होते हैं और जो माँ का प्रेम होता है वो नि:स्वार्थ प्रेम होता है और आप तो पर नि:स्वार्थ प्रेम की कुछ अलग ही परिभाषा देते हैं कि आप बोलते हैं कि जो स्वयं को जानता है वही नि:स्वार्थ प्रेम होता है। 



Speaker 2: मैं आपको एक कहानी सुनाता हूँ। एक बार हॉस्पिटल में क्या होता है? एक महिला होती है उसको बच्चे का जन्म होता है तो वो अपने बच्चे को उठा कर के छाती से लगाकर एकदम रो रही होती है बिल्कुल प्रेम में एकदम आंसू बहा रही होती है। इतने में डॉक्टर अंदर आता है। डॉक्टर बोलता है आपका बच्चा वो नहीं, वो दूसरा वाला है। आपने गलत बच्चा उठा लिया। वो माँ फटाक से उस बच्चे को छोड़ती है और वो दूसरे वाले को जाकर उठा लेती है। तो ये क्या हुआ?  नि:स्वार्थ प्रेम था ना उसका तो। उसमें स्वार्थ था ही नहीं तो ऐसा क्यों किया? और यह पता है ना आपको कि एक माँ है उसके पास में बच्चा है जिसको वो गले से लगाकर घूम रही है। वो देख रही है कि उसमें बरसात में, ठंड में, गर्मी में, दूसरा बच्चा एक छोटा सा वो भूखा वहाँ पे पड़ा हुआ है। तो इग्नोर करके अपनी कार में बैठ के घुसके निकल जाती है। क्या हुआ नि:स्वार्थ प्रेम का? क्योंकि मेरे का भाव है ना कि ये मेरा है। आगे चल के मेरा सहारा बनेगा तो यह स्वार्थी प्रेम है ना? नि:स्वार्थ कहां से हो गया? नि:स्वार्थ प्रेम तो स्वयं को जान कर ही किया जा सकता है और ये जो माँ बाप भगवान होते हैं कॉन्सेप्ट की वजह से इतने मा-बाप बन रहे हैं लोग और इतने बच्चे पैदा हो रहे हैं। पृथ्वी की ऐसी की तैसी कर दी है। पूरा नेचर खा गये, क्योंकि कुछ नहीं बन सकते तो चलो भगवान ही बन जाये!

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