है नहीं दुष्यंत की या मीर की
ये ग़ज़ल तो है सदा बस पीर की
जलजले, सैलाब, तूफां, आँधियाँ
ये ही तो बुनियाद हैं तामीर की
जब क़लम लिखने लगे इंसाफ़ तो
फिर भला औक़ात क्या शमशीर की
मिल गयी है इक जगह दिल में तेरे
अब मुझे दरकार क्या जागीर की
माँ दुआ करती रही हक़ में मेरे
और मरम्मत हो गयी तक़दीर की
तुम अमल कर के हुए अनमोल और
बात हम करते रहे तासीर की
- के.पी. अनमोल
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