Wednesday, March 25, 2015

મિસિંગ બક્ષી એ પુસ્તક નહીં પણ વાસ્તવિકતા છે!

ચંદ્રકાંત બક્ષી.... સરકારી બાબુઓ પ્રત્યે આપણો આક્રોશ જાણીતો છે. પણ બક્ષીજી એમના પરિચિતો અને મિત્રોના નામ પાછળ બાબુ લગાવીને સંબોધન કરે ત્યારે લોકોને આત્મીયતાનો અહેસાસ થતો હશે.

જે હાથેથી એ ઉષ્માસભર શેકહેન્ડ કરતાં એ જ હાથમાં જ્યારે કલમ આવતી ત્યારે ઉષ્માનું સ્થાન ઉચાટ લેતો અને બક્ષીબાબુના એ જ હાથે પકડેલી કલમમાંથી આગઝરતું લખાણ ઝરવા લાગતું. વાઈસે વર્સા પણ એટલું જ લાગુ પડે છે. ગુજરાતી સાહિત્યમાં ઘણાંની કીર્તિના ઊંચે ઊડતા વિમાનોને બક્ષીબાબુએ એમની આલોચનાનાં રડારમાં ટપકાં સ્વરૂપે ઝીલીને શબ્દોની ગાઈડેડ મિસાઈલથી ટપકાવીને સર્જેલા ગમખ્વાર સાહિત્યિક અકસ્માતોનું તો અલગ સંપાદન થઈ શકે.

બક્ષીની નવલકથાના બધા પાત્રો બક્ષીની જ ભાષા બોલે છે એવો આક્ષેપ થતો, પણ બક્ષીના ચાહકો પણ તેમના અંગત જીવનમાં બક્ષીની ભાષા બોલતા થઈ જતા હોય, બક્ષીનુમા વિવાદાસ્પદ વર્તન કરતાં હોય તો પછી એમના પાત્રોનો શું વાંક? 

ધારો કે એમના મૃત્યુ પછી પ્રકટ થયેલા બે સંપાદનો "મિસિંગ બક્ષી" અને "બક્ષી અને અમે" વાંચવા પૂરતાં બક્ષીબાબુ સજીવન થાય તો આ બંને પુસ્તકોને કદાચ હાસ્યના પુસ્તકોમાં ખપાવી દે એવું એમને અંજલિ આપતા ઘણાંખરાં લેખો વાંચીને લાગે. એમની શખ્સિયતને અનુરૂપ બે શબ્દો લખવા એ પણ પડકાર માંગી લેતું કામ છે. સાહિત્ય અકાદમીનું કામ સાહિત્યને જીવંત રાખવાનું, એનો પ્રચાર કરવાનું છે, પણ અકાદમી ન કરી શકે એવું કામ એકલે હાથે આ  'એક આદમી'એ કરી બતાવ્યું!

ઝનૂનથી સુકૂન સુધીના બહુવિધ ભાવોની સહેલગાહ કરાવતી બક્ષીસાહેબની કલમ વિશે વધારે તો શું લખું? પક્ષીવિદ સલીમ અલીનો જેવો પક્ષી પ્રેમ છે એવો મારા સહિતના ઘણાં ચાહકોનો અનન્ય બક્ષી પ્રેમ છે અને રહેશે!

Wednesday, March 18, 2015

अपनी मरजी से कहाँ अपने सफर के हम हैं (निदा फ़ाज़ली)

अपनी मरजी से कहाँ अपने सफर के हम हैं,
रुख हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं;

पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता हैं,
अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम हैं;

वक्त के साथ है मिटटी का सफर सदियों से,
किसको मालूम कहाँ के हैं किधर के हम हैं;

चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफिर का नसीब,
सोचते रहते हैं किस राह गुज़र के हम हैं;

गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दौर में हम,
हर कलमकार की बेनाम ख़बर के हम हैं; 

                                                                      --- निदा फ़ाज़ली

Tuesday, March 17, 2015

फिर छिड़ी रात बात फूलों की / मख़दूम मोहिउद्दीन

फिर छिड़ी रात बात फूलों की
रात है या बरात फूलों की ।

फूल के हार, फूल के गजरे
शाम फूलों की रात फूलों की ।

आपका साथ, साथ फूलों का
आपकी बात, बात फूलों की ।

नज़रें मिलती हैं जाम मिलते हैं
मिल रही है हयात फूलों की ।

कौन देता है जान फूलों पर
कौन करता है बात फूलों की ।

वो शराफ़त तो दिल के साथ गई
लुट गई कायनात फूलों की ।

अब किसे है दमाग़े तोहमते इश्क़
कौन सुनता है बात फूलों की ।

मेरे दिल में सरूर-ए-सुबह बहार
तेरी आँखों में रात फूलों की ।

फूल खिलते रहेंगे दुनिया में
रोज़ निकलेगी बात फूलों की ।

ये महकती हुई ग़ज़ल 'मख़दूम'
जैसे सहरा में रात फूलों की ।

                                                                       (मख़दूम मोहिउद्दीन)


यार से प्यार की बातों को ग़ज़ल कहते है (फ़ैसल)

यार से प्यार की बातों को ग़ज़ल कहते है
ज़ुल्फ़-ओ-रुख़सार की बातों को ग़ज़ल कहते है

प्यार से महकी हुई होशरुबा रातों में
दिल से दिलदार बातों को ग़ज़ल कहते है

कभी इकरार की बातों को बताते है ग़ज़ल
कभी इन्कार की बातों को ग़ज़ल कहते है

दिल जो सौदाई किसी ज़ुल्फ़-ए-गिरह गीर का हो
उस गिरफ़्तार की बातों को ग़ज़ल कहते है

बड़ी कामियाब हुआ करती है दौलत ग़म की
ग़म से दो'चार की बातों को ग़ज़ल कहते है

जिस चमन जर्र में होती हैं दिलों की बातें
उस चमन जर्र की बातों को ग़ज़ल कहते है

कि हैं जिन लोगों ने तन्हाई मे बताई वो लोग
दर-ओ-दीवार की बातों को ग़ज़ल कहते है

कभी वाईज़ के खयालों से छलकती है ग़ज़ल
कभी मयख़्वार की बातों को ग़ज़ल कहते है

हो गया हो जिसे देखे हुए एक अरसा फ़ैसल
उस के दीदार की बातों को ग़ज़ल कहते है


इक लफ़्ज़-ए-मोहब्बत का अदना ये फ़साना है (जिगर मुरादाबादी)

इक लफ़्ज़-ए-मोहब्बत का अदना ये फ़साना है 
सिमटे तो दिल-ए-आशिक़ फैले तो ज़माना है 

ये किसका तसव्वुर है ये किसका फ़साना है 
जो अश्क है आँखों में तस्बीह का दाना है 
[(तसव्वुर = ख़याल, विचार, याद), (फ़साना = विवरण, हाल), (अश्क = आँसू), (तस्बीह = माला)] 

हम इश्क़ के मारों का इतना ही फ़साना है 
रोने को नहीं कोई हँसने को ज़माना है 

वो और वफ़ा-दुश्मन मानेंगे न माना है 
सब दिल की शरारत है आँखों का बहाना है 

क्या हुस्न ने समझा है क्या इश्क़ ने जाना है 
हम ख़ाक-नशीनों की ठोकर में ज़माना है 

वो हुस्न-ओ-जमाल उनका ये इश्क़-ओ-शबाब अपना 
जीने की तमन्ना है मरने का ज़माना है 

(जमाल = बहुत सुन्दर रूप, सौंदर्य, ख़ूबसूरती) 

या वो थे ख़फ़ा हमसे या हम थे ख़फ़ा उनसे 
कल उनका ज़माना था आज अपना ज़माना है 

अश्कों के तबस्सुम में आहों के तरन्नुम में 
मासूम मोहब्बत का मासूम फ़साना है 

जो उनपे गुज़रती है किसने उसे जाना है 
अपनी ही मुसीबत है अपना ही फ़साना है 

आँखों में नमी-सी है चुप-चुप-से वो बैठे हैं 
नाज़ुक-सी निगाहों में नाज़ुक-सा फ़साना है 

ऐ इश्क़-ए जुनूँ-पेशा हाँ इश्क़-ए जुनूँ-पेशा 
आज एक सितमगर को हँस-हँस के रुलाना है 

ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना तो समझ लीजे 
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है 

दिल संग-ए-मलामत का हरचंद निशाना है 
दिल फिर भी मेरा दिल है दिल ही तो ज़माना है 

(संग-ए-मलामत = निंदा) 

आँसू तो बहुत से हैं आँखों में 'जिगर' लेकिन 
बिँध जाये सो मोती है रह जाये सो दाना है 

                                                                                     -जिगर मुरादाबादी